अंतिम अमेरिकी सैनिक टुकड़ी जैसे ही अफगानिस्तान छोड़ मध्य पूर्व से हिंद-प्रशांत की ओर मुड़ेगी, इस क्षेत्र में विदेश नीति के मायने कई देशों के लिए पूरी तरह से बदल जायेंगे। मध्य पूर्व में महंगे और लंबे समय तक सैन्य हस्तक्षेप के बाद, अमेरिका ने यह मानना शुरू कर दिया है कि वह इस क्षेत्र में सदियों पुराने संघर्षों को सुलझा नहीं सकता है।अमेरिका के पास अब इससे भी अधिक महत्वपूर्णअन्य तत्काल प्राथमिकताएं हैं जैसे कि एक मुखर चीन से चुनौती।
सितंबर 2021 तक अमेरिकी सेना को छोड़ देगी अफगानिस्तान
राष्ट्रपति बिडेन आने वाले महीनों में अफगानिस्तान से सभी अमेरिकी सैनिकों को वापस ले लेंगे, अमेरिकी अधिकारियों ने कहा,11 सितंबर, 2001 की 20 वीं वर्षगांठ तक सैन्य निकास को पूरा कर लिया जाएगा। 2001 के हमलों ने संयुक्त राज्य को अपने सबसे लंबे युद्ध में खींचा था।
उधर तालिबान ने अमेरिकी और नाटो बलों पर हमलों को फिर से शुरू करने की घोषणा की है, अगर विदेशी सैनिक समय सीमा से बाहर नहीं गए तो। तालिबान ने अपने एक बयान में कहा है कि वो अफगानिस्तान के भविष्य के बारे में “किसी भी सम्मेलन” में भाग लेना जारी नहीं रखेगा जब तक कि सभी “विदेशी ताकतें” नहीं निकल जातीं।
अमेरिकीप्रस्थान उपमहाद्वीप के लिए बड़ी चुनौतियां लायेगा
भारत और पाकिस्तान दोनों के अलग कारणों सेही सही, मगर अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान उपस्थिति हमेशा के लिए पसंद करते।भारत के लिए, अमेरिकी सैन्य उपस्थिति ने कट्टर पंथीताकतों पर रोक लगा रखी है और अफगानिस्तान में भारतीय भूमिका के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया।
वहीं पाकिस्तान के लिए, अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति भौगोलिक पहुंच और परिचालन सहायता के लिए अमेरिका को पूरी तरह से पाकिस्तान पर निर्भर रखती है। और उस निर्भरता को बदले में भारत के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता था।
लेकिन जबकि अब अमेरिका अफगानिस्तान छोड़ रहा है, ऐसे में भारत और पाकिस्तान को उन परिणामों के साथ रहना होगा जिनमें काबुल में तालिबान की वापसी और पूरे क्षेत्र में हिंसक धार्मिक उग्रवाद को बढ़ावा देना शामिल है।
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क्या हो सकती है भारत की रणनीति?
सभी क्षेत्रीय ताकतों के साथ उनके संघर्षों के संदर्भ के बिना अच्छे संबंधों पर जोर भारत के लिए अभी तक सही साबित हुआ है तुर्की को छोड़कर, जो एर्दोगनकी सत्ता में भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण हो गया, भारत अधिकांश क्षेत्रीय ताकतोंके साथ अपने संबंधों का विस्तार करने में कामयाब रहा।
उम्मीद है कि नया क्षेत्रीय मंथन तुर्की को भारत के साथ अपने संबंधों पर नए सिरे से विचार करने के लिए प्रोत्साहित करेगा।
पाकिस्तान मध्य पूर्व के प्रति अपनी नीतियों को पुनर्गठित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। इजरायल के साथ एक सामान्य संबंध पाकिस्तान के हितों को पूरा करते हैं, परंतु इजरायल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए घरेलू विरोध को दूर करने में वो असमर्थ है। मध्य पूर्व में क्षेत्रीय ताकतों के मतभेद का मुकाबला करने में भी पाकिस्तान मुश्किलों का सामना कर रहा है।
अफगानिस्तान से अमेरिका के बाहर निकलने से क्षेत्र में भू-राजनीतिक प्रवाह शुरू हो जाएगा। चूंकि ये कारक भारत को इस क्षेत्र में एक कठिन परिस्थिति में धकेल देंगे, इसलिए, अफगानिस्तान में बदलती गतिशीलता से निपटने के लिए कुशल कूटनीति की आवश्यकता है।
इस क्षेत्र में शांति का महत्व
अफगानिस्तान में प्रत्यक्ष अमेरिकी भागीदारी का अंत क्षेत्रीय स्थिरता में दीर्घ कालिक आश्वाशन नहीं देता है। हालांकि, यह सुनिश्चित करता है कि अमेरिका का ध्यान क्षेत्रीय संघर्षों से हट जाए और अफगानिस्तान को स्थिर करने के लिए स्थानीय शक्तियों के प्रयासों में वृद्धि हो।
अधिकांश क्षेत्रीय शक्तियों को किसी न किसी तरह से अमेरिकी वापसी के बाद से निपटना चाहिए, चाहे वह कूटनीति, सैन्य नियंत्रण या किसी संयोजन के माध्यम से हो।
अफगानिस्तान में अमेरिका की उपस्थिति अफगानिस्तान और उसके पड़ोसियों के बीच क्षेत्रीय गतिशीलता को विकृत करती है।हालांकि वापसी के बाद अल्पकालिक अस्थिरता बढ़ने की संभावना है। पड़ोसी राज्यों के हित, उनमें से कुछ अमेरिकी रणनीतिक प्रतियोगी, यह सुनिश्चित करेंगे हैं कि वे अफगानिस्तान के मामलों में किसी प्रकार का संतुलन बहाल करने के लिए काम करेंगे।
इसका मतलब यह भी है कि जरूरत पड़ने पर क्षेत्र में अप्रत्यक्ष तरीकों और परदे के पीछे से आतंकियों पर हमला करने की कुछ क्षमता बनाए रखने के लिए आस-पास के देशों को अमेरिका से आपत्ति की संभावना नहीं है।
क्षेत्र में तालिबान और अन्य कट्टरपंथी ताकतों के बीच सीमा पार संबंधों की संभावना एक चुनौती है जिसका दक्षिण एशियाई राज्यों को जल्द से जल्द सामना करना होगा। अफगानिस्तान में हिंसा के बढ़ते स्तर और मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मदनशीद पर हालिया हमले, आतंकवाद के साथ दक्षिण एशिया की स्थायी चुनौतियों को रेखांकित करते हैं। जब तक दक्षिण एशियाई राज्य उग्रवाद और आतंकवाद का मुकाबला करने में सहयोग नहीं करते, वो सब इसके आगे कमजोर पड़ जाएंगे।